गुरुवार, २० ऑक्टोबर, २०११

फर्जी देवी-देवता परोसकर वंचितों को लूटना अब बंद करो!


♦ विजयेंद्र सिंह
किस हिंदू की बात करते रहते हैं लोग? हम तो यादव हैं, कुर्मी, कहार और चमार हैं … क्यों हिंदू कहा जा रहा है हमें? हमें किसके लिए हिंदू बनाया जा रहा है? मेरे हिंदू बनने से किसका स्वार्थ सिद्ध होगा? जब हमारा सदियों से शोषण हो रहा था, तब क्या हिंदू नहीं थे हम? न हिंदू पतितो भवs की बात अवधारणा से बाहर क्यों नहीं आ सकी थी तब? अमानुषिक व्‍यवहार करने वालों का बहिष्‍कार क्यों नहीं किया हिंदू-हिंदू एक हो की बात करने वालों ने?
ब्राह्मण-धर्म को हिंदू-धर्म, ब्राह्मण-राष्ट्र को हिंदू-राष्ट्र, ब्राह्मण-संस्कृति को हिंदू-संस्कृति साबित करने का लोभ क्यों पाले हुए हैं लोग? ब्राह्मणवाद और राष्ट्रवाद जब एक ही है, तो इसका भेद मिटाने का छद्म क्यों हो रहा हैं? चेहरा बदल-बदल कर आस्था के नाम पर दुकानदारी कब तक चलेगी? और ये श्रेष्ठ जन भला ऐसा क्यों न सोचें? जिस संस्कृति में छल-प्रपंच, राग-द्वेष, ऊंच-नीच, बलात्कार … सब घटिया चीजें ही प्रमुखता से हो, उस संस्कृति के प्रवक्ता भला क्या बात करेंगे? हिंदू संस्कृति एक आपराधिक संस्कृति है, इस पर गर्व हरगिज नहीं किया जा सकता? जिनके देवी-देवता ही षड्यंत्रकारी हों, तो उनके शागीर्द कैसे होंगे?
मोहल्ला लाइव पर मेरे और मणि के लेख पर जितनी गालियां, धमकियां और अपमानजनक कमेंट्स हैं, उससे पता चलता है कि ‘जातिवाद-ब्राहमणवादी’ ताकतें किस प्रकार सक्रिय हैं। अपने पूर्वजों विष्णु और इंद्र की राह पर चल कर कैसे मोहिनी का रूप धारण कर गरीबों की गाढ़ी कमाई लूटने के चक्कर में हैं।
आखिर इन वर्गों को इतनी चिंता क्यों है इस सड़ी गली संस्कृति को बचाये रखने की? क्या स्वार्थ है इनका? क्या इसी सड़ांध पर इनकी आजीविका चलती है? इस आस्था में आतंक है और इसकी बात करने वाले आतंकवादी हैं। आतंकवाद से कुछ लोग मरते हैं और आस्था के आतंक से कई पीढ़ियां सूली पर चढ़ जाती हैं।
बदलते वक्त में इन यथास्थितिवादियों को अपने कायिक-श्रम पर क्या भरोसा नहीं करना चाहिए? दूसरे की कमाई पर मलाई चाटने का पुराना संस्कार भूल नहीं जाना चाहिए? क्या यह अनैतिक नहीं? इसे जिंदा रखना देश विरोधी कृत्य नहीं है?
हिंदुत्व एक ब्राह्मणत्‍व ही तो है? ब्राहमणवाद एक विकलांग बैल की तरह है? विकलांग बैल जिनका कोई उपयोग नहीं है समाज में। न वह खेती के काम आता है, न ही माल ढोने या तेल पेरने में। इस निकम्मे बैल की ही पूजा होती रही। इसको अक्षत और बढ़िया भोजन मिलता रहा और मेहनत करने वाले बैल को भूसा भी नहीं और पिटाई भी। यह है ब्राह्मणवाद। जोंक की तरह है यह ब्राहमणवाद। अब भी इनसे समाज का खून चूसना बंद करवाएं महोदय। हाय तुलसी दासजी, क्या खूब कहा आपने – पूजहिं विप्र ज्ञान गुण हीना …
सुरेश चिपलूनकर [एक तरफा] हमारे आदरणीय मित्र हैं। वे दलित – विमर्श को धंधा एवं पैसा कमाने का जरिया बता रहे हैं। आपकी समझ को सलाम? आपसे भी यही उम्मीद है कि गडकरी की तरह आप भी संघ का आगा पीछा करें, कुछ पा ही लेंगे। जिस प्रकार से आरक्षण विरोधियों का अहंकार आप सहला रहे हैं, उससे लगता है कि आप कम ही दिन के लिए स्टेट बैंक के कर्मचारी हैं। ‘भगवान’ पर क्या भरोसा करना, ‘भागवत’ पर भरोसा बनाये रखें। दलितों को गरियाते रहें। हर पार्टी आपको जगह देगी? गणेश-परिक्रमा में विश्वास आपका ही होगा। हमलोग तो उद्यमिता में भरोसा करते हैं। दलित-पिछड़ा मेहनत में विश्वास करते हैं। उन्हें कभी भी गणेश-परिक्रमा और इस प्रकार के किसी कोई शोर्ट-कट में भरोसा नहीं रहा।
चिपलूनकर ने संघ की चर्चा की है अपनी किसी टिप्‍पणी में? संघ में काम करने वाले कार्यकर्त्ता की स्थिति दलित जैसी ही है। दिमाग भोथरा कर स्वयंसेवक बनाये रखना 1925 से जारी है। दलित पिछड़ा जो भी भटक कर वहां गया, वह संघ में केवल दरी बिछाने को ही अभिशप्त है। जीवन उनका सूची बनाने, संपत करने, प्रचारकों की रोटी जुटाने और गुरु-दक्षिणा की व्यवस्था करने में ही गुजर जाता है। कभी दलित संघ का सरसंघचालक हो नहीं सकता? रमेश पतेंगे, बंगारू, आरिफ, शाहनवाज और मुख्तारों का क्या कहना? यह तो मुखौटा भर है संघ का।
आप संघ के हिंदुत्व की बात कर रहे हैं? संघ के प्रणेता और प्रचारकों के चरित्र का बयान नहीं ही करें तो बेहतर है। ये कितने घोर जातिवादी, अनैतिकतावादी और भ्रष्ट हैं, यह बाद में लिख भेजेंगे। प्रचारकों की समलैंगिकता की सूची भी चाहिए, तो भेज दूंगा। बहुत ही लिस्ट है भुक्तभोगियों की।
नागपुर में ही दीक्षा ग्राम है। उसकी पीड़ा आपने सुनी है? सदियों के दर्द की दास्तान है वहां। जिन पंडितों ने संघ की स्थापना की, उनके पूर्वजों के कारनामे क्या क्या रहे महाराष्ट्र में, क्या यह भी इतिहास छुपा है? महाराष्ट्र में जितना जातिगत अत्याचार हुआ, यही लोग गुनाहगार हैं।
दिल दहल देने वाली घटनाओं को अंजाम दिया। जिसे जमीन पर थूकने की इजाजत नहीं, आदमी की तरह जीने की इजाजत नहीं, पढ़ने की इजाजत नहीं, बोलने की इजाजत नहीं, साथ बैठने की इजाजत नहीं, जानवर से भी बदतर जीवन जीने को किसने विवश किया था? यही सर्यूपारायण पंडितों ने न? जिन्होंने संघ बनाकर हिंदू हिंदू की बात शुरू की है?
हजारों वर्षों की गुलामी का जिम्मेवार कौन? क्यों दासता बनी रही? क्यों प्रतिकार नहीं हुआ? देश की इतनी बड़ी तबाही का जिम्मेवार कौन? यह पहचानना जरूरी नहीं है? किस विचार और धर्म ने समाज को बांट कर रखा? क्यों समाज की प्रतिरोधी शक्तियां क्षीण हुई?
वर्त्तमान भारत के पास फिर वही चुनौती आयी है। बस शक्ल भर बदला है, जो और भी खतरनाक है।
फर्जी देवी-देवता परोसकर, स्वर्ग का लोभ और नरक का भय दिखाकर लूटने का सिलसिला अब नहीं चलेगा?
आप घृणा फैलाने का आरोप लगाएंगे। गड़े मुर्दे उखाड़ने की बात करेंगे। वर्गीय चेहरा स्पष्ट है। आस्था के नाम पर बवाल मचाने वाले वही लोग हैं, जो कल आरक्षण का विरोध कर रहे थे। आरक्षण विरोधियों का राम में भरोसा है, कृष्ण में भरोसा है, विष्णु और इंद्र में भरोसा है। ये देवी देवता इनके हितों के रक्षक हैं। इनके यथास्थितिवाद के पोषक हैं। ये देवी-देवता हमारा रोल मोडल नहीं हो सकते? जिनका भगवान है और जिनके लिए भगवान है, वो इनकी ताबीज लटका कर घूमें। इनकी ताकत पर हमें भरोसा नहीं। जबरदस्ती भरोसा तो नहीं किया जा सकता है न? मोहल्ला लाइव पर आई टिप्‍पणियां तो शायद यही कह रही हैं?
दो कौड़ी के इन देवी-देवताओं की क्या बिसात, जो इन पांच-दस प्रतिशत पंडितों और कथित सवर्णों को भी सही राह पर नहीं ला सके? तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की फौज के बावजूद मुट्ठी भर आक्रांता से देश की रक्षा नहीं हो सकी। न ही ये अंग्रेजों को भगा सके? न ही ये गरीबी दूर कर सके, न ही आतंकवाद को भगा सके?
भगत सिंह की कुर्बानी से अंग्रेज भागते हैं, जवानों की शहादत से आतंकवादी भागते है। मेहनतकशों के बल पर यह देश चलता है। अगर भगवान को मानना मेरी मजबूरी भी हुई, तो यही हमारे लिए ईश्वर होंगे?
धर्म की हानि करने वाले ये पंडित सदियों से जिंदा हैं, इन पर तो सुदर्शन चलाओ किशन जी! इतने दिनों से शूद्र की दुर्दशा नहीं दिख रही है आपको? यदा यदा हि धर्मस्य … जैसी गप्पबाजी तो बंद करें किशन जी! जैसे आप हैं, वैसे ही आपके मानने वाले हैं।
.
जो जातिवादी होगा वह सांप्रदायिक भी होगा। वही साम्राज्यवाद का दलाल भी होगा? ब्राह्मणवाद और बाजारवाद के गठजोड़ को समझना जरूरी है।
(विजयेंद्र सिंह। जर्नलिस्‍ट-एक्टिविस्‍ट। दिल्‍ली से प्रकाशित दैनिक स्‍वराज खबर के प्रधान संपादक।
सनातनी और धार्मिक पीठों में दलितों के नेतृत्‍व के लिए संघर्षरत।
उनसे babavijayendra@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत:

टिप्पणी पोस्ट करा

Powered By Blogger

मी लिहित असलेले लेख योग्य आहेत का? आपल्या प्रतिक्रिया कळवा.